ग्रहों की प्रकृति और स्वभाव
किस ग्रह का स्वभाव और प्रभाव कैसा है और उसके द्वारा किन बातों का विचार का विचार किया जाता है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए –
- सूर्य – यह ग्रह पुरुष जाती, रक्त वर्ण, पित्त प्रकृति तथा पूर्व दिशा का स्वामी है | यह आत्मा, आरोग्य, राज्य, देवालय का सूचक एवं पितृकारक है | इसके द्वारा शारीरिक रोग, मंदाग्नि, अतिसार, सिरदर्द, शे, मानसिक रोग, नेत्र- विकार, उदासी, शोक, अपमान, कलह आदि का विचार किया जाता है | मेरुदंड, स्नायु, कलेजा, नेत्र आदि अवयवों पर इसका विशेष प्रभाव होता है | इससे पिता के संबंध में विचार किया जाता है |
सूर्य लग्न से सप्तम स्थान में बली तथा मकर राशि में छह राशियों तक चेष्टाबली होता है | सूर्य को पाप ग्रह माना गया है |
- चंद्र – यह ग्रह स्त्री जाती, श्वेत वर्ण, जलीय तथा पश्चिमोत्तर दिशा का स्वामी है | यह मन, चित्तवृत्ति, शारीरिक, स्वास्थय, संपत्ति, राजकीय- अनुग्रह, माता – पिता तथा चतुर्थ स्थान का कारक है | इसके द्वारा पांडु रोग, कफज तथा जलीय रोग, मूत्रकृच्छ, मानसिक रोग, स्त्रीजानीरोग, पीनस, निरथर्क भ्रमण , उदार तथा मस्तक संबंधी विचार किया जाता है | यह रक्त का स्वामी है तथा वातश्लेष्मा इसकी धातु है |
चन्द्रमा लग्न से चतुर्थ स्थान में बली तथा मकर से छह राशियों में चेष्टाबली होता है | कृष्ण पक्ष की षष्ठी से शुकल पक्ष की दशमी तक चन्द्रमा क्षीण रहता है | इस अवधि से चन्द्रमा को पाप ग्रह माना जाता है | शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा पूर्ण ज्योतिवान रहता है | इस अवधि में इसे शुभ ग्रह तथा बली माना जाता है | बली चन्द्रमा ही चतुर्थ भाव में अपना पूर्ण फल प्रदान करता है, क्षीण चन्द्रमा नहीं देता |
- मंगल – यह ग्रह पुरुष जाती, रक्त वर्ण, दक्षिण दिशा का स्वामी, अग्नि तत्व वाला तथा पित्त प्रकृति का है | यह धैर्य तथा पराक्रम का स्वामी, भाई बहिन का कारक तथा रक्त एवं शक्ति का नियामक कारक है | ज्योतिषशास्त्र में इसे पाप ग्रह माना गया है | यह उत्तेजित करने वाला, तृष्णाकारक तथा सदैव दुःख दायक रहता है |
मंगल तीसरे तथा छठे स्थान में बली होता है, दशम स्थान में दिग्बली होता है , चन्द्रमा के साथ रहने पर चेष्टाबली होता है तथा द्वितीय स्थान में निष्फल (बलहीन) होता है |
- बुध – यह ग्रह नपुंसक जाती, श्याम वर्ण, उत्तर दिशा का स्वामी, त्रिदोष प्रकृति तथा पृथ्वी तत्व वाला है | यह ज्योतिष, चिकित्सा , शिल्प, क़ानून , व्यवसाय, चतुर्थ स्थान तथा दशम स्थान का कारक है | इसके द्वारा गुप्तरोग, संग्रहणी, वातरोग, श्वेत कुष्ठ, गूंगापन, बुद्धिभ्रम, विवेक, शक्ति तथा आदि शब्द के उच्चारण से सम्बंधित अवयवों का विचार किया जाता है |
बुध, सूर्य, मंगल, राहु, केतु तथा शनि- इन अशुभ ग्रहों के साथ ही तो अशुभ फल देता है और पूर्णचन्द्र, गुरु अथवा शुक्र – इन शुभ ग्रहों के साथ हो, तो शुभ फलदायक रहता है | यदि यह (बुध) चतुर्थ स्थान में बैठा हो, तो निष्फल रहता है |
- गुरु – यह ग्रह पुरुष जाती, पीत वर्ण, पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी तथा आकाश- तत्व वाला है | यह कफ धातु तथा चर्बी की वृद्धि करता है | इसके द्वारा शोथ (सूजन), गुल्म आदि रोग, घर, विद्या, पुत्र, पौत्र आदि का विचार किया जाता है | इसे ह्रदय की शक्ति का कारक भी माना जाता है |
गुरु लग्न में बैठा हो, तो बली होता है और यदि चन्द्रमा के साथ कहीं बैठा हो, तो चेष्टाबली होता है | यह शुभ ग्रह है | इसके द्वारा पारलौकिक एवं आध्यात्मिक सुखों का विशेष विचार किया जाता है |
- शुक्र – यह ग्रह स्त्री जाती, श्याम-गौर वर्ण, दक्षिण पूर्व दिशा का स्वामी, कार्य- कुशल तथा जलीय तत्व वाला है | यह कफ,वीर्य आदि धातुओं का कारक माना जाता है | इसके प्रभाव से जातक के शरीर का रंग गेहुआं होता है | यह कावय- संगीत, वस्त्राभूषण, वाहन, शैया, पुष्प, आंख, स्त्री (पत्नी) तथा कामेच्छा आदि का कारक है | इसके द्वारा चतुरता एवं सांसारिक सुख संबंधी विचार किया जाता है | यदि जातक का जन्म दिन में हुआ हो, तो शुक्र के द्वारा माता के संबंध में भी विचार किया जाता है |
शुक्र छठे स्थान में बैठा हो, तो निष्फल होता है और यदि सातवें स्थान में हो, तो अनिष्टकर होता है |
ज्योतिषशास्त्र ने शुक्र को शुभ ग्रह माना है | इसके द्वारा सांसारिक तथा व्यावहारिक सुखों का विशेष विचार किया जाता है |
- शनि – यह ग्रह नपुंसक जाति, कृष्ण वर्ण, पश्चिम दिशा का स्वामी, वायु – तत्व तथा वातश्लेष्मिक प्रकृति का है | इसके द्वारा आयु, शारीरिक बल, दृढ़ता, विपत्ति, प्रभुता, मोक्ष, यश, ऐश्वर्य, नौकरी, योगाभ्साय, विदेशी भाषा एवं मूर्च्छा आदि रोगों का विचार किया जाता है | यदि जातक का जन्म रात्रि में हुआ हो, तो यह माता और पिता का कारक होता है |
शनि सप्तम स्थान में बली होता है तथा किसी वक्री ग्रह अथवा चन्द्रमा के साथ रहने पर चेष्टाबली होता है |
शनि क्रूर तथा पाप ग्रह है, परंतु इसका अंतिम परिणाम सुखद होता है | यह मनुष्य को दुर्भाग्य तथा संकटों के चक्कर में डालकर, अंत में उसे शुद्ध तथा सात्विक बना देता है |
- राहु – यह कृष्ण वर्ण, दक्षिण दिशा का स्वामी तथा क्रूर ग्रह है | यह जिस स्थान पर बैठता है, वहां की उन्नति को रोक देता है | यह गुप्त युक्तिबल, कष्ट तथा त्रुटियों का कारक है |
- केतु – यह कृष्ण वर्ण तथा क्रूर ग्रह है | इसके द्वारा नाक, हाथ- पाँव, कष्ट एवं चर्मरोग आदि का विचार किया जाता है | यह गुप्त शक्ति, बल, कठिन कर्म, भय की कमी का कारक है | कुछ स्थितियों में केतु शुभ ग्रह भी माना जाता है |